
जैसे आनन-फानन में रुपये जारी हुए, एनजीओ ने वैसी ही बिना मतलब की 60 पेज की रिपोर्ट भी जारी कर दी।सर्वे में गेहूं, चावल जैसे किराने के साथ-साथ आफिस के टेलीफोन का बिल तक शामिल है। बंधुआ मजदूर कहां थे, कौन नियोजक था, इसका कोई ब्यौरा नहीं है। हां खर्च का पूरा हिसाब 160 पन्नों में दर्ज है।
दिल्ली सरकार की इस अंधेरगर्दी भरी दरियादिली के पांच वर्ष बाद अब महालेखा परीक्षक इस साठगांठ की जांच करने की तैयारी में है।बात है 2006 की। उस समय दिल्ली सरकार ने यकायक सभी नौ जिलों में बंधुआ मजदूरों के सर्वे के लिए अग्निवेश के जंतर-मंतर स्थित संगठन को 18 लाख की एकमुश्त राशि दे दी।
इसके लिए न तो कोई समझौता पत्र तैयार हुआ न ही नियम व शर्ते तय की गईं।आरटीआइ के तहत मांगी गई जानकारी में डिवीजनल मजिस्ट्रेट ने स्पष्ट किया है कि संस्था से सर्वे कराने का फैसला किसी आवेदन के आधार पर नहीं,बल्कि सरकार के स्तर पर हुआ था।
शायद यही कारण था कि पूरी राशि एकमुश्त अग्रिम मिल गई। संगठन ने 2007 में 60 पेज की रिपोर्ट तो दी लेकिन ऐसी जिसे पहली नजर में ही खारिज किया जा सकता है।दरअसल, दिल्ली में 90 फीसदी बंधुआ मजदूर बताने वाली इस रिपोर्ट के खर्च का लेखा-जोखा लगभग 160 पन्नों में है। इसमें न सिर्फ जंतर मंतर स्थित संगठन के टेलीफोन बिल का 38 हजार का भुगतान बताया गया है, बल्कि मजदूरों के भोजन के नाम पर गेहूं, चावल, आलू, सब्जी, टेंट आदि के भी हजारों रुपये जोड़े गए हैं। हवाई चप्पल तक की रसीद चस्पां है।
अधिकतर खर्च मुक्ति मोर्चा के अपने वाउचर पर किए गए, जिसमें लाभार्थियों के नाम अधिकतर अस्पष्ट हैं। पांच हजार से ज्यादा के भुगतान पर भी कहीं रसीदी टिकट नहीं है।सर्वे रिपोर्ट में एक भी नियोजक का नाम-पता नहीं है। लिहाजा किसी के खिलाफ कार्रवाई का सवाल ही नहीं उठता।
सर्वे के लिए दिशा निर्देश तय करने वालों में प्रमुख रहे पूर्व श्रम सचिव लक्ष्मीधर मिश्रा का कहना है कि 'ऐसी रिपोर्ट को कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता है, मगर दिल्ली सरकार इस मामले पर कुंडली मारे बैठी है। वहीं स्वामी अग्निवेश ने काफी कोशिशों के बाद भी स्पष्ट जवाब नहीं दिया। उलटे आरोप मढ़ा कि 'मुझे कुछ लोग बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं।
0 comments :
Post a Comment