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'गुजरात गो दर्शन' गौ माता पर एक अद्भुत पुस्तक


देवनार मजबाह (स्लाटर हाउस) में दो लाख 11 हजार 109 बकरे बेचे गए। दसवीं और ग्यारहवीं जिलहज्जा को 8 हजार 550 बैलों की कुर्बानी दी गई। इस वर्ष पशुओं के अभाव में मुम्बई वासियों को निराशा का सामना करना पड़ा। संयोग से उसी दिन यह समाचार भी मिला कि 28 अक्तूबर को प्रख्यात जैन संत विमलकुमार सागर जी महाराज ने भिवंडी में श्री घनश्याम गोपालन ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित एक पुस्तक का विमोचन किया जिसका शीर्षक है 'गुजरात गो दर्शन।' भारत में हर-मत पंथ के लोग मानते हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है इसलिए यहां पशुओं की सुरक्षा अत्यंत अनिवार्य है। इन पशुओं में गाय का अपना महत्व है। भारत में केवल हिन्दू ही नहीं गाय को पालने और चराने में महत्वपूर्ण भूमिका यहां के अनेक मुस्लिम बंधु भी निभाते रहे हैं। इसलिए गाय इस देश की सांस्कृतिक और आर्थिक बुनियाद में नींव का पहला पत्थर है।

इस बात को ध्यान में रखकर 'गुजरात गो दर्शन' को प्रचारित और प्रसारित करने के लिए विद्यालयी पाठ्यक्रम में इसे स्थान मिले इसका प्रयास किया जा रहा है। भारतीय गो विज्ञान परीक्षा समिति ने 2011 में गुजरात सहित देश के 17 राज्यों में परीक्षाओं का आयोजन किया ताकि विद्यार्थी गो की महत्ता को समझ सकें। उक्त योजना के संचालकों का यह कार्यक्रम है कि तीसरी कक्षा से माध्यमिक स्तर तक उक्त परीक्षाओं का आयोजन किया जाए जिससे गो का महत्व और उसके भीतर छिपी शक्तियों से नई पीढ़ी अवगत हो सके। नरेन्द्र मोदी सहित देश के अन्य मुख्यमंत्रियों ने भी इस योजना का स्वागत किया है। 

जानकारी के अनुसार अनेक स्थानों पर इस प्रकार की परीक्षाएं प्रारंभ हो चुकी हैं। इस योजना के आयोजकों का मत है कि इससे विद्यार्थियों में गाय के प्रति समझ तो बढ़ेगी ही देश की सांस्कृतिक एकता का भी प्रचार-प्रसार होगा। उक्त पुस्तक में महर्षि दयानंद सरस्वती को उद्धृत करते हुए लिखा गया है कि भारत की एकता तभी संभव है जब यहां का बहुसंख्यक समाज संगठित हो। उक्त कार्य असंभव तो नहीं, लेकिन कठिन अवश्य लगता है। लेकिन गो एक ऐसा आधार है जो यहां के विभिन्न मत-पंथों, विचारकों और सांस्कृतिक प्रवाहों को एक सूत्र में बांध सकती है। हमारा राष्ट्रगीत और राष्ट्रीय ध्वज जिस प्रकार से भारत की एकता और अखंडता का प्रतीक है वही स्थान भारतीय संस्कृति और अर्थव्यवस्था में गाय का है।

विश्व पर एक दृष्टि डालें तो कृषि प्रधान देशों में वहां पाए जाने वाले पशु ने महत्व की भूमिका निभाई है। न्यूजीलैंड की राजधानी का नाम ओकलैंड है। वहां के निवासी मावरी कहे जाते हैं। मावरी भाषा में ओक का अर्थ होता है गाय। आज भी न्यूजीलैंड का मुख्य व्यवसाय कृषि और डेरी ही है। वहां दूध बहुत बड़े प्रमाण में उपलब्ध है। इसलिए उसका पाउडर सारी दुनिया में निर्यात किया जाता है। दुनिया की डेरी कहा जाने वाला देश डेनमार्क है। उसकी राजधानी का नाम कोपनहेगन है। 

पुराने मानचित्रों में आज भी कोपनहेगन की 'स्पेलिंग' सी ओ डब्ल्यू से ही लिखी गई है जो 'काऊ' शब्द को उसके साथ जोड़ती है। कोपनहेगन अपने दुग्ध व्यवसाय के लिए आज भी विश्व में प्रसिद्ध है। यूरोप में जब तक ट्रैक्टर की खोज नहीं हुई थी उस समय तक बैलों के द्वारा ही खेती की जाती थी। इंग्लैंड का प्रसिद्ध घराना फोर्ड बैलों के व्यवसाय के लिए जाना माना था इसलिए उस नगर का नाम ही आक्सफोर्ड पड़ गया। कहने की आवश्यकता नहीं कि गाय और बैल हर देश में कृषि के लिए प्रासंगिक रहे हैं। पुराने मिस्र में भी गाय को इसीलिए पवित्र माना गया है। 

मध्य पूर्व के देशों में आकाश से उतरी पहली आसमानी पुस्तक जबूर में गाय का विवरण है। इसी प्रकार पवित्र कुरान में अलबकर सूरा है। अरबी में गाय को बकर कहा जाता है। तिब्बत का याक वहां की गाय का सूचक है। पाठकों को बता दें कि तिब्बत और नेपाल में याक की हत्या प्रतिबंधित है। भारतीय इसलिए अपनी गाय को कामधेनु की संज्ञा देते हैं। भारत में जितने भी महान देवी देवता हुए हैं उनका संबंध गाय से रहा है। आदर्श राम राज्य की कल्पना को साकार करने के लिए महर्षि वशिष्ठ ने राजा को गो सेवा करने का निर्देश दिया। नंदिनी गाय की रक्षा के लिए ही उन्हें राम का अवतार मिला। गाय के दूध से भगवान श्री नाथ जी प्रकट हुए। इस प्रकार उक्त छोटी सी पुस्तक अनेक जानकारी प्रदान करके लोगों को रोमांचित कर देती है। सारा देश जानता है कि गो की चर्बी वाले कारतूस ही तो मंगल पांडे के लिए 1857 की क्रांति का कारण बने थे।

भारतीय पाठशालाओं में बालकों को गाय के संबंध में ज्ञान देने वाली 'गुजरात गो दर्शन' एक ऐसी अद्भुत पुस्तक है, जो संस्कृति से लेकर धर्म, व्यापार, विज्ञान और जीवन के लिए आवश्यक कलाओं के साथ लाभप्रद वाणिज्य के दर्शन करवाती है। हजरत अली के शब्दों में गाय का दूध दुनिया की असंख्य बीमारियों के इलाज के रूप में शिफा है। पुस्तक कहती है कि इंसान का बच्चा भी जन्म लेते ही अपनी मां को नहीं पुकारता। लेकिन गाय का जाया (बछड़ा) पैदा होते ही जो आवाज लगाता है उसमें मां शब्द सुनाई पड़ता है। गाय जब रंभाती है तो लगता है कोई मां अपनी ममता से ओतप्रोत होकर उसे वात्सल्य प्रदान कर रही है। इसलिए उसे माता शब्द से विभूषित किया गया है। पुस्तक को जब पढ़ते हैं तो लगता है गाय तो माता के साथ-साथ एक चलता-फिरता दवाखाना है। उसका कौन सा अंग है जो इंसान की सेवा नहीं करता। 

जीवित रहने तक उसे अपने दूध की धारा पिलाती है, जिसे हम गोबर कहते हैं वह तो अपने आपमें गो वर है। उसके मूत्र में आयुर्वेद के नुस्खे भरे पड़े हैं। जीवित है तब तक तो गाय जीवनदायी है ही, लेकिन मर जाने के बाद भी न जाने अपने बेटे-बेटियों के लिए क्या-क्या छोड़ जाती है। सऊदी अरब की अलखिराज गोशाला में 1800 गायें हैं जिन्हें मर जाने के बाद दफना दिया जाता है। विदेशी होने के बाद भी वे गाय के वरदान से परिचित हैं लेकिन हम भारतीय होने के बाद भी उसके गुणों से परिचित नहीं हैं। यदि हैं तो उससे लापरवाह हैं।

इस पुस्तक में एक दिलचस्प प्रश्नावली प्रकाशित की गई है जिसे पढ़कर हम इस नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि गाय हमारे लिए कहीं माता है तो कहीं डाक्टर, कहीं भरापूरा औषधालय, कहीं स्वादिष्ट मिठाई का खानपान भंडार और कहीं मनोविज्ञान सिखाने वाला चलता-फिरता प्राध्यापक। गाय के दूध से क्या क्या बनता है, और वह किस रोग में कितना लाभदायी है? घनश्याम गोपालन ट्रस्ट के इस अभियान में अब योगदान देने का संकल्प जागरण नामक संगठन भी कर चुका है।

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